तारा माँ

यह अक्टुबर 1924 के अंतिम दिनों की बात है जब गुरूदेव ने सेन फ्रान्सिकको में पर्दापण किया और अपना पहला उद्बोधन दिया। इस प्रवचन में लौरी की एक घनिष्ठ सखा भी शामिल हुई। प्रवचन के बाद वे दिव्यानुभूति से ओत प्रोत होकर लौरी के पास पहुचीं और उन्हें भी स्वामी योगानन्द से मिलने का आग्रह किया तो लौरी ने जबाब दिया ‘‘कोई भी महान भारतीय सतं यहाँ पश्चिम के भौतिकता में आंकठ डुबे देश में नही आयेगा।’’ लेकिन इस मित्र ने उन्हें अपने साथ शाम के प्रवचन में चलने को मना ही लिया।
उस शाम को लौरी पहली बार उस विशाल दर्शक समूह का हिस्सा बनी जो गुरूदेव के दिव्य आध्यात्मिक चेतना को अनुभव कर पाये थे। इस प्रथम आध्यात्मिक प्रवचन में एक साधारण दर्शक रूप में सम्मलित होने के अलावा इस समय तक तारा माँ गुरूदेव से मिली नही थी, ना ही कोई ध्यान की तकनीको से परिचित थी ना ही गुरू जी द्वारा उन्होंने कोई दीक्षा ही दी गई थी । तारा माँ ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा:
‘‘ अब भारत जाने की कोई आवयश्कता नही है क्योंकि भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान जिसे मैं खोज रही थी वह मेरे दिव्य गुरू के माध्यम में मेरे समक्ष ईश्वर ने भेज दिया है।’’ वह अपने पूर्व जन्मों में ही उच्चतम साधना द्वारा सर्वश्रेष्ठ गुणों की पूर्ण अभिव्यक्तिी थी इस प्रवचन के बाद आन्तरिक रूप से गुरूजी से पूर्ण समस्वर हो गयी। कुछ दिनों बाद तारा माँ दर्पण के सामने खड़ी हुई तो वे अपने छवि के बजाए अपने गुरू को दर्पण में साक्षात् दर्शय्मान पाती है और इस अद्भूत दिव्य अनुभूति के बाद वे कई महीनों तक समाधि की अवस्था में ही रही।

इस प्रकार लौरी जिन्हें गुरूदेव ने दीक्षा उपरान्त तारा माँ का विशेष नाम से अलंकृत किया, उन दुर्लभ शिष्यों में से प्रथम शिष्य बनी जिन्हें ईश्वर ने गुरूदेव के असाधारण कार्य में कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए चुना। गुरूदेव ने तारा माँ के आश्रम प्रवेश के साथ ही सभी आश्रमवासी संतो व शिष्यों को कहा ‘‘इसे ध्यान मत करने देना वर्ना ये सदा ही समाधि की अवस्था में रहेगी, अभी इसे बहुत कार्य करना है जिसके लिए इसका अवतरण हुआ है।’’
इस पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए गुरूदेव बोले:‘‘इस जीवन में इसका ध्यान करना आवश्यक नही है, क्योंकि ये अपने पूर्व जन्मों में ही पूर्ण रूप से ईश्वर में स्थिर हो गयी और इसी कारण से इस जन्म में ईश्वरीय चेतना से परिपूर्ण मेरे उद्बोधनों को अच्छी तरह से समझ कर उनका सम्पादन कर सभी को लिए उपलब्ध करवाने के योग्य हो सकी है।’’
एक अवसर पर गुरूदेव ने कहा ‘‘ तारा माँ एक महान योगी है जिन्होंने अपने कई जन्म भारत में साधना करते हुए बिताये है और मेरे अन्य कुछ शिष्यों के समान ही ईश्वर ने इसे क्रियायोग के प्रसार के दिव्य योजना में मेरी सहायता करने के लिए यहाँ भेजा हैै।’’

गुरूदेव स्वयं कहते है मेरे पुजनीय गुरूदेव स्वामी श्री युक्तेश्वर जी के अतिरिक्त सिर्फ मेरी प्रिय शिष्य लौरी ही है जिसके साथ मैं पुर्णतया आनन्दभाव के साथ ज्ञान व दर्शन शास्त्र पर गंभीर चर्चा कर सकता हूँ।

वे गुरूदेव के उन विशेष शिष्यों में से थी। जिन्होंनें गुरूदेव के क्युबा व अलास्का के साथ समस्त अमेरिकन महाद्वीप के देशों में प्रवचन के कार्यक्रम का आयोजन करवाने व क्रियायोग के प्रसार में अपना सर्वस्व सर्मपण किया।
तारा माँ के समाधि उपरान्त श्रद्धांजलि समारोह में अपनी यादें ताजा करते हुए दया माँ कहती है: तारा माँ ने सदैव गुरूदेव द्वारा सुर्पूद की गयी संघ से जुड़ी विशेष जिम्मेदारीयों को बिना किसी शिकायत के सफलतापूर्वक सम्पूर्ण किया है। उनके साथ बिताऐ अपने अनेक वर्षो के दौरान मैंने तारा माँ को सदैव, गुरूदेव द्वारा सौपी गयी प्रत्येक जिम्मेंदारी को अद्भूत कौशल व सर्मपण के साथ सम्पन्न करते हुऐ देखा है और जब गुरूदेव के दिव्य क्रिया-योग ज्ञान के विस्तारण के प्रारम्भिक वर्षो में पश्चिम में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था तो वही थी जिन्होंने अदम्य साहस से कहा ‘‘एक बार जब मैंने इस दिव्य कार्य को सम्पन्न करने हेतु ही इस रणक्षेत्र में पदार्पण किया है और अब सम्पूर्ण विश्व की भी एक हो जाये तो मुझे रोक नही सकता।’’
तारा माँ अक्सर मुझे स्वामी रामर्तीथ रचित गुरूदेव को अत्यंत प्रिय गीत रोक सके न कोई मुझे ………. का स्मरण करवाती थी। जिसके सम्पूर्ण भार्वाथ को उन्होंने अपने जीवन में चरिर्ताथ कर हम सब के समाने एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।

तारा माँ के प्रभावशाली व्यक्तित्च को वर्णनीत करते हुए दया माँ उनकेे कहती है वह हम सभी के लिए गुरूदेव के एक अद्वितीय दूत के समान थी। अनेक अवसरों पर अत्यधिक तनाव के वातावरण में भी संगठन से सम्बन्धित कार्यो भी वह गुरूदेव की दिव्य योद्धा साबित होती थी। मुझे याद है गुरूदेव अक्सर कहा करते थे कि लौरी एक मासूम, निश्छल, प्यारी और वफादार बच्चे के समान है जब भी उसे कोई मेरे के सिद्धान्तों का उल्लंघन करता दिखगा ! तो ध्यान रखना ! वह सिंह के समान गर्जेगी।’’ तारा माँ का अवतरण ही गुरूदेव के कार्यो को पूर्ण करने के लिए हुआ था। उन्हें किसी भी माननीव संगति का ना तो मोह था ना ही स्थुल जगत में कोई अभिरूचि वह एक असाधारण व्यक्त्वि की स्वामिनी थी। तारा माँ कहती थी ‘‘मेरे इस एकाकी व्यवहार के कारण जो मुझें अपने से विलग समझते है, मैं उनका एक अभिन्न हिस्सा ही हूँ पर मेरी जीवन्तता मेरे पूजनीय गुरूदेव को पूर्णता समर्पित है।’’
उन्होंने गुरू सेवा कार्य से कभी विश्राम नही लिया। उन्हें किसी प्रकार की मौन साधना की आवश्यकता ही नही पड़ी क्योंकि वे सदा ही गुरू में लीन रही। गुरूदेव अक्सर कहते थे: ‘‘मेरे हृदय के सम्पूर्ण भावों व दिव्य अनुभवों को इस पुस्तक के रूप में पिरोने के लिए व मेरे हस्तलिखित पृष्ठों से लेकर इसे प्रेरक पुस्तक के रूप में सम्पादित करने के कठिन कार्य का सम्पूर्ण श्रेय लौरी प्रेट को ही जाता है।’’

अनेक प्रकाशको से असन्तुष्ट न्युर्याक के एक प्रकाशक के कार्य की गुणवता से वे सन्तुष्ट हुई। शरारीक रूप से अस्वस्थ होने के बाद भी वे न्युर्याक शहर के शीतल जलवायु में लगभग एक वर्ष तक गर्म पानी व अन्य सुख सुविधा के अभाव में भी इस पुस्तक के प्रकाशन कार्य को निजी देखरेख में ही सम्पन्न करने के लिए वहाँ सर्घषरत रही। तारा माँ द्वारा की गयी उस पुस्तक की सम्पादकता इतनी विशिष्ट थी कि गुरूदेव ने लिखा था। ‘‘एक आलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण शिष्या ही जैसे मेरी लौरी इस प्रकार के अध्यात्मिक सत्यों को उजागर कर सकती है।’’ गुरूदेव की ज्ञान विरासत के विस्तारण व इसके मुल रूप के संरक्षण के लिए वह अत्यन्त सजग व निष्ठावान पूर्णतः कटिबद्ध थी। वह सत्य के पक्ष में रहने वालों के लिए अत्यन्त विन्रम थी। गुरूदेव प्रायः सार्वजनिक रूप में तारा माँ की प्रशंसा कर देते थे। इस पर तारा माँ अक्सर उनसे विनती करती थी: गुरूदेव दुसरों के सामने मेरी प्रशंसा मत करिये, क्योंकि जब आप ऐसो करते है तो मुझे अच्छा नही लगता आपकी कृपाओं के सामने तो मैं स्वयं को अति तुच्छ मानती हूँ, पर गुरूदेव सदैव वही करते थे जो सत्य था और तारा माँ वास्तिवक रूप से इस प्रशंसा की सर्वोचित अधिकारी थी। गुरूदेव ने पुस्तक की प्रथम प्रतियाँ को अपने शिष्यों व आश्रमवासीयों को हस्ताक्षर के साथ भेंट दी। तारा माँ को भंेट की प्रति पर स्वयं गुरूदेव ने लिखा: ‘‘इस पुस्तक के प्रकाशन में तुम्हारें प्रेम भरे योगदान के लिए ईश्वर एवं गुरूजनों का आर्शीवाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।’’

गुरूदेव ने तारा माँ के अभूतपूर्व योगदान को अपनी जीवनी (योगी-कथामृत) के प्रथम पृष्ठ पर विशेष स्थान दिया है। तारा माँ एक मुनष्य के तीक्ष्ण, विलक्षण मस्तिष्क का एक ज्वंलत उदाहरण थी। ब्रह्मज्ञान के लिए आवश्यक द्वेत का ज्ञान व विवेक पहले से ही विद्यमान था। ईश्वरीय ज्ञान की पहचान तब तक सम्भव नही जब तक स्वयं इस प्रेम में पूर्णत आप्लवित ना हो। तारा माँ का ईश्वर के प्रति अर्शत प्रेम था। अपने अंतिम प्रयाण से पहले वे केवल गुरूदेव की छवि को निहारती रहती विशेषकर उनकी आँखों को निहार कर भावविहल होती रही। एस आर एफ के इतिहास में तारा माँ सदैव प्रथम विजेता के रूप में जीवित रहेंगी। वह इस संगठन की सबसे मजबुत स्तम्भ थी तथा जिन्हंे पश्चिम में ईश्वर व गुरू के कार्यो को स्थापित करने में जगनमाता की दिव्य शक्ति के रूप में सदा ही याद रखा जायेगा। पूर्व-पश्चिम के इन उच्च आर्दशों को सगंठित करने में उनकी व्यापक दुरदर्शिता ने एक मील के पत्थर का कार्य किया है। गुरूदेव के आशीर्वाद व तारा माँ जैसे दुर्लभ शिष्यों के योगदान द्वारा हम आज एक ऐसा संघ का हिस्सा बन सकें है जो ईश सम्र्पक हेतु सकल मानवता का नैतृत्व करता है। तारा माँ द्वारा कभी कभी योगदा शिष्यों को उत्साहित करने के लिए साझा किये गये उनके अतीन्द्रीय अनुभव जो कि मात्र गुरूदेव के प्रथम प्रवचन को सुनने से ही प्राप्त हुऐ थे इस प्रकार बताती थी। गुरूदेव के कुछ व्याख्यानों को सुनकर अक्सर ग्रहणशील सत्यान्वेशियों को ऐसा अनुभव होता है जैसे उनकी आत्मा पर से अन्धकार का आवरण ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होकर समाप्त हो गया हो। तारा माँ कहती है जब मैंने प्रथम बार गुरूदेव के व्याखान को सुना और कार्यक्रम की समाप्ती अपने घर लौटते समय मुझे अपने अन्तर में दिव्य प्रशांति का अनुभव हुआ ऐसा लगा जैसे मेरे भीतर एक बहुत बड़ा बदलाव हो गया हो, और अब मैं वह नही रही जो कल से पहले थी। इस अद्भूत अनुभूति के आनन्द में मेरे भीतर स्वयं को निहारने का विचार आया और मैंनें कमरे में स्थित दर्पण में जब स्वयं देखा तो वहाँ मैं नही थी वरन् मेेेरे गुरूदेव की अनुपम छवि दिखाई पड़ रही थी। दिव्य आनन्द की लहरों का उफान मेरी आत्मा में ऐसे हिलोरे ले रहा था जिसे शब्दों द्वारा वर्णित करना सम्भव नही है। अनन्ता, सत्यता, दिव्यता व प्रेम इत्यादि शब्दों का इस अनुभव के समक्ष कोई अर्थ नही रह गया था। इस आनन्द में मेरा सम्पुर्ण अस्तित्व, मेरा जीवन और मेरे नेत्र उस दिव्य प्रकाश से आलोकित हो रहे थे। स्वयं से साक्षात्कार के इस अनुभव ने मेरे हृदय को आनन्द का अविरल स्त्रोत बना दिया जिसका ना कोई आदि था न कोई अन्त । यही चेतन आनन्द समस्त मनुष्यों का वह मुल स्त्रोत है। जो सृष्टि के कण कण में व्याप्त हैै। मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व में आनन्द के साथ साथ कृतज्ञता का भाव भी समाहित हो रहा था।
इस आनन्द की इतनी प्रगाढ अनुभूति थी जिसमें अनन्त कोटि युगों का सर्घष व सदियों की पीड़ा सदा सर्वदा के लिए इस प्रकार विलुप्त हो गयी जैसे कभी थी ही नही। पाप, दुखः, मृत्यु ये शब्द निःसार से प्रतीत हो रहे थे इन्हें जैसे मेरे रोम रोम में प्रवाहित आनन्द निगल गया हो। इस दौरान उनके निकट जनों ने उनके चेहरे पर एक अदभूत दिव्य ज्योति का अनुभव किया। अजनबी भी उनके साथ बात करने को लालायित हो रहे थे बच्चे उनको देखकर आनन्दित होकर उनके गोदी में बैठने के लिए मचलते रहे।