स्वामी मोक्षानन्द जी (मई 3,1927 से 13 जनवरी, 1982)

स्वामी मोक्षानन्द जी एक सन्यासी और एस आर एफ के निदेषक मण्डल के सदस्य तथा गुरूदेव के एक अनुकरणीय षिश्य के रूप में सदैव याद किये जायेंगे। स्वामी जी की स्मृति में आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में स्वामी आनन्दमोयी के षब्दों में उनके जीवन के विषेश प्रसंग
गुरूदेव की महासमाधि से मात्र 4 दिन पहले, 3 मार्च 1952 को एस आर एफ आश्रम में 24 वर्र्शीय लेलेण्ड स्टेडिंग ने प्रेवष किया जिन्हें हम स्वामी मोक्षानन्द जी के नाम से जानते है।
उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व, हाव भाव, आंखें व चेहरा केवल एक ही विचार अभिव्यक्त कर रहे थे ‘‘मैं अपना सम्पूर्ण जीवन ईष्वर के लिए, अपने गुरू व उनके कार्यो के लिए ही समर्पित करने आया हूँ’’। यह उद्ात भावना उनके व्यक्तित्व का जीवन पर्यन्त सर्वोच्च गुण रही।
मोक्षानन्द जी कृशक परिवार में जन्में होने के कारण वह अत्यन्त परिश्रमी स्वाभाव के थे। उन्हें भवनों के मरम्मत व निर्माण में मेरी सहायता के लिए नियुक्त किया गया।
एक दिन अन्य सन्यासी द्वारा ‘‘गुरूदेव बाहर जा रहे है’’ यह संदेष सुन मैंने मोक्षानन्द को कहा: ‘‘जल्दी से चलते है’’। हम दोनों गुरूदेव के पास दौड़ कर पहुचें। मैंने गुरूदेव को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम किया। मोक्षानन्द जी क्वेकरों में से एक थे और उन्होनें षायद पहले कभी साश्टांग प्रणाम नही किया था पर उन्होनें भी पूर्ण श्रद्धा भाव से झुक कर गुरूदेव को प्रणाम किया। गुरूदेव ने अत्यन्त प्रेम व आदर से अपने इस नये षिश्य का स्वागत करते हुऐ आषीर्वाद की मुद्रा कहा ‘‘ निश्ठा एक सर्वोच्च आध्यात्मिक नियम है।’’ यह एक अत्यंत हृदयस्पर्षी दृष्य था ऐसा अनुभव हुआ मानो गुरूदेव अपने अत्यन्त पुराने अति निश्ठावान् षिश्य का स्वागत कर रहे हो।
मोक्षानन्द जी के एसआरएफ आने से पहले उनके जीवन से जुड़ी एक घटना उनके ही षब्दों में ‘‘आश्रम में आने के लिए अपने स्वीकृति प्रपत्र को भेजने के कुछ समय पष्चात ही मेरे पिताजी दूर्घटनाग्रस्त पैर में प्लास्टर चढ़ गया। उस समय हमारे खेतों में बुवाई का समय चल रहा था और कार्य षेश था और यह अति तर्कसंगत और सामान्य था कि एक अपने सर्वाधिक योग्य और ज्येश्ठ होने के कारण उन्होंने सहायता माँगी और एक दो माह रूक कर फिर आश्रम जाने को कहा। मैनें अपने गुरू के पास 3 मार्च को पहुचने का वादा कर लिया था। और मुझे ऐसा महसुस हुआ कि मेरे गुरू मुझे पुकार रहे है। मैं अपने किये गये वादे पर दृढ़ रहा और 3 मार्च को ही आश्रम पहुचाँ।
यह घटना मोक्षानन्द जी के द्वारा अपने जीवन में गुरू को सर्वोच्च स्थान देना, उनकी विष्वनीयता, सत्यनिश्ठा और सर्मपण की भावना को प्रमाणित करती है। यह वही भाव है जो धर्मग्रन्थों में वर्णित है जीसस वचनानुसार: ‘‘ईष्वर ही सर्वोच्च है तुम्हारा अन्य कोई अराध्य नही होगा।’’
मोक्षानन्द जी ने पत्राचार विभाग, केन्द्रीय विभाग के साथ साथ एसनीटस आश्रम के सहप्रषासक, चैरीवेली व लेकश्राईन आश्रम के मुख्य प्रभारी के रूप में भी अपनी सेवाऐं प्रदान की है। एक लोकिप्रय सन्यासी के रूप में उन्होंने गुरूदेव की षिक्षाओं, क्रियायोग प्रसार हेतु युरोप, मैक्सिको, दक्षिण अफीका, अमेरिका, केनडा, न्युजीलैण्ड तथा आस्टेलिया की अनगिनत यात्राएंे की और गुरूदेव के प्रिय भारत भूमि का भी भ्रमण करने का सौभाग्य प्राप्त किया।
माया जनित बाह्य अनुभव – जैसे रोग, कश्ट, परीक्षणों आदि निरन्तर परिवर्तनषाील जगत के स्वप्न मात्र है जिनका कोइ महत्व नही है इन अनुभवों में प्राप्त षिक्षा और उसके अनुसार हमारी मनोवृति ही महत्वपूर्ण है।
मोक्षानन्द जी अपने अन्तिम समय में गंभीर रोग से ग्रसित हो गये, जब मैं उनसे मिलने पहूँचा तब उन्होंने कहा: ‘‘अब अन्त समय है। ’’ मैंने उन्हें उत्साहित करने का प्रयास किया और कहा कि तुम बिल्कुल स्वस्थ हो जाओगे तो उन्होनें उत्तर दिया: ‘‘नहीं! मैं ऐसा नही सोचता यह मेरी अन्तिम बीमारी है।’’ गुरू में उनकी गहन आस्था व समस्वरता के कारण उन्होंने उन क्षणों में भी अपने गुरू के अनगिनत आषीर्वादों को अनुभव किया।
मोक्षानन्द जी में गुरू व ईष्वरीय कार्यो के प्रति सम्पूर्ण सर्मपण भावना, दृढ़ ईच्छाषक्ति, विन्रमता, आज्ञाकारिता व सर्वोपरि अटुट निश्ठा जैसे अनेक दिव्य गुण विद्यमान थे । परन्तु फिर भी वे अक्सर कहते थे ‘‘मुझ में भक्ति की कमी है’’ यद्यपि उनका जीवन सदैव ही एक उत्कृश्ट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण रहा है। ईष्वर के प्रति उत्कट प्रेम का उनमें लेष मात्र भी अभिमान नही था।
मोक्षानन्द जी के रूग्णता के समय हुई अदभूत आध्यात्मिक उन्न्ाति हमारे लिए एक उत्कृश्ट अनुभव था।

हमने देखा कि प्रेम तथा भक्ति के गुणों द्वारा वे दिन प्रतिदिन अधिकाधिक सुवासित होते ही जा रहे थे। उनके द्वारा अपने अस्वस्थता की स्थिती में दया माँ को लिख गया पत्र उनके आत्मा की सुन्दरता की श्रेश्ठ अभिव्यक्ती है।

प्रिय दया माँ,
मैं आपको, अपने महान् गुरूदेव व उन सभी महान गुरूजनों को बारम्बार प्रणाम करता हूँ जिन्होंनेे पिछले समय से मुझे महान् आषीर्वाद प्रदान किये है। मैं कभी भी आपके द्वारा प्रदत प्रेम के लिए कतृज्ञता व्यक्त करने में सर्मथ नही हो पाऊँगा। सकता। इस लम्बें पत्र के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्योंकि मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ है। पर विगत कुछ माह में मुझ पर हो रही अनवरत हो रही कृपावृश्टि के कुछ अनुभवों को साझा करना चाहता हूँ।
प्रारम्भ से ही षान्ति का अनुभव, षरीर त्यागने की सम्भावनाओं के प्रति कोई व्याकुलता नही । हृदय आंतरिक षांति ने मुझे स्थिरता प्रदान की है। मेरे जीवन में चाहे जो कुछ भी घटित हो सब उचित ही है क्योंकि मैं ईश्वर व गुरू से प्रेम करता हूँ। गुरूदेव मेरे साथ हैं यह अनुभूति सदैव बनी रहेगी। भक्तों द्वारा प्राप्त पत्रों, पूश्पों और बधाईयों से तथा साथी सन्यासीयों की अथक सेवा व सर्मपण से स्वयं को अभिभूत व कृतज्ञ अनुभव कर रहा हूँ। एक अद्भूत सार्मथ्य इस दौरान महसुस कर रहा हूँ।
परन्तु उपरोक्त अनुभवों से अधिक मैं गुरूदेव से प्राप्त असंख्य आषीर्वादों में लिए मैं उन्हें बारम्बार प्रणाम करता हूँ। यह समय अत्यन्त आध्यात्मिक आषीर्वादों से परिपूर्ण रहा है। मैं जानता हूँ जीवन में कुछ उदासीन क्षण भी आते है इस संसार में जीवन के आनन्दों को दुखों से सन्तुलित किया जाता है परन्तु अत्यधिक आषीर्वाद से परिपूर्ण मेरे दिन पुनः ऐसे नही होगें।
मैं अपने लिए प्रार्थना नही कर सका। मैं षरीर को त्यागने के भय से ग्रसित नही हूँ। इसेे किसी ना किसी समय तो त्यागना ही है वो चाहे अब से पांच दिन बाद हो या पांच हजार दिन, कौन जाने?
मैं इस मनोवृति को स्वीकार करता हूँ जब मैंने गुरूदेव से अन्तर में प्रार्थना की ‘‘ यदि आप की इच्छा हो तो मुझे इस षरीर से मुक्त करें। ’’ वास्तव में यह एक आध्यात्मिक आलस्य का ही स्वरूप था। मैं पुनः स्वस्थ होने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करूगां ताकि मैं आपसे और अधिक प्रेम व निरन्तर सेवा कर सकुँ।
माँ आपको याद होगा ही कि इस रूग्ण्ता से कुछ दिनों पहले ही आपने पूछा था ‘‘ तुम इस जीवन में क्या करना चाहते हो?’’
प्रिय दया माँ, मैं ईष्वर तथा गुरूदेव से अधिकाधिक प्रेम करना चाहता हूँ मैं ईष्वर को क्रियायोग तथा गहन ध्यान के द्वारा गहनतापूर्वक खोजना चाहता हूँ। मैं सभी को प्रेम करना व उनकी सेवा करना चाहता हूँ। मैं स्वार्थ को जीत कर बौद्धिकता को प्रेम व सच्ची भक्ति से सन्तुलित करना चाहता हूँ। मैं हर प्रकार से एक सच्चा षिश्य बनना चाहता हूँ, गुरूदेव की इच्छानुसार उनकी सेवा करना चाहता हूँ।
गुरूदेव इस युग के जगतगुरू है, वे इस आण्विक युग के ईसा मसीह है वे इस विष्व में लाखों आत्माओं के लिए मुक्ति का मार्ग है। वे लाखों आत्माओं को ईष्वर के साम्राज्य में ले जा रहे है।
प्रिय दया माँ, कृप्या मुझसे तभी मिलें जब आप पूर्णत कार्यमुक्त हों अभी कोई जल्दबाजी की आवष्यकता नही है अनेकोनेक आषीर्वादों की वर्शा से स्थिती बेहतर से बेहतरीन होती जा रही है।
निरन्तर प्रस्फुटित भक्ति, कृतज्ञता एवं आदर सहित
मोक्षानन्द

आप देखें, रूग्णता के विकट समय में भी वे कह रहे थे कि स्थिती बेहतर से बेहतर होती जा रही थी। क्योंकि वे गुरूदेव एवं ईष्वर के प्रेम तथा उनके विचारों में अधिकाधिक केन्द्रित होते जा रहे थे।
क्रिसमस की सुबह हम उन्हे व्हीलचेयर पर गुरूजी के कमरे में प्रार्थना हेतु लेकर गये। इसके बाद उन्हें गुरूजी के उस कमरे में लेकर गये जहाँ वे आगन्तुको से परिर्चचा किया करते थे। दया माँ भी उनसे हाॅल में मिली और उनसे कुछ बातचीत की। तब माँ ने उन्हें स्वागत कक्ष में बुलाया जहाँ अन्य कुछ निदेषक गण उनसे मिलने के लिए इंजजार कर रहे थे। मेरी इच्छा है कि मैं उस क्षण के बारे में आपको बता सकूँ। जब मोक्षानन्द जी स्वागत कक्ष में पहुचें तो गुरूदेव की उपस्थिती इतनी सुदृढ़ महसुस हो रही थी सारा कमरा उनके दिव्य प्रेम से परिपूर्ण हो गया था। वह एक अत्यन्त दिव्य अनुभव था ना केवल मोक्षानन्द जी के लिए वरन् हम सभी के लिए भी जो वहाँ उस समय उपस्थिित थे। मैंने सोचा ‘‘सेवा, निश्ठा, समर्पण के जीवन का एक संजोने लायक सर्वाेत्म अनुभव है। आनन्द और कृतज्ञता के आंसु मोक्षानन्द के चेहरे को भिगो रहे थे। उन्होंने विन्रमतापूर्वक जो उनका सहज गुण था, दया माँ से कहा ‘‘मैं आपको कुछ भेंट करना चाहता हूँ दया माँ व निदेषको ने एक साथ कहा ‘‘आप तो पहले ही अपना सभी कुछ दे चुके हो’’
इस के पष्चात उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता ही गया और पिछले बुधवार की सुबह वे ब्रह्मलीन हो गये। उस समय वहाँ उपस्थित सन्यासी ने अपने इस अनुभव को ऐसे व्यक्त किया ‘‘जैसे कि एक माँ षिषु को अपने गोद में सुलाती है और सो जाने पर उसे बड़े ही सावधानी व प्रेम से बिस्तर पर रखती है’’ बिल्कुल ऐसी ही अनुभूति मोक्षानन्द के चेहरे पर प्रतिलक्षित हो रही थी जब वे इस इहलोक से उच्च लोक की यात्रा पर निकले। इस में कोई सन्देह नही है कि उन्हें गुरूदेव ने अपनी षरण में ले लिया था।
इस घटना को सुन हम सभी सन्यासी इस निश्ठावान् षिश्य के अन्तिम दर्षनों को उनके कमरे में पहुचने लगे और वहाँ सभी मौन प्रार्थनाऐ कर रहे थे। मैंने जब कमरे में प्रवेष किया तो उनके बिस्तर के साथ लगे दीवार पर गुरूदेव के एक बड़े चित्र पर मेरी निगाह पड़ी तो गुरूदेव की आँखों और चेहरे पर ऐसे अकथनीय आनन्द की अभिव्यक्ति का अनुभव हुआ, जैसे कि वह कह रहे हो कि वह अब मेरे साथ है पूणतः आनन्द में।