परमहंस जी व उनके निश्ठावान षिश्य, आध्यात्मिक उŸाराधिकारी राजर्शि लगभग एक ही समय अवतरित हुये थे, राजर्शि का जन्म 05 मई 1892- को आर्कीबाल्ड, लुसियाना, अमेरिका में परमहंस जी के जन्म से 7 माह पूर्व हुआ था, परमहंस जी इसे जुड़वाँकर्म संस्कार कहते थे। राजर्शि जनकानन्द जी पारीवारिक नाम जेम्स जेस्सी लिन था वे छह भाई बहनों में चौथे थे। उनके पिता जेस्सी विलयम लिन व माता सलेटिया जेने थी । उनके पिता निर्धन भूमिहीन किसान थे जो दूसरों के खेत पर काम करके जीवन निर्वाह करते थे। पाचं वर्श की आयु में जेम्स को 2 मील पैदल चल कर प्राथमिक षिक्षा हेतू कस्बे में जाना होता था उनके पास किताब भी नही होती पर वे स्कुल में ही साथी बच्चों की किताब से सबक याद कर अपने षिक्षक को सुना दिया करते । कुछ वर्शो के बाद वे स्कुल के साथ साथ नजदीक के एक स्टोर की फुटपाथ पर बैठकर फल बेचा करते और जिनके पास गाय नही होती उनके घर दुध पहंूचा कर प्राप्त आमदनी से माता पिता की सहायता करते थे। अपने स्कुली षिक्षा के साथ साथ वे स्थानीय रेल प्लेटफार्म की सफाई का कार्य केवल 2 डालर प्रतिमाह में किया करते थे। उनकी बचपन की यादों को याद करते हुऐ सतं लिन बताते थे ‘‘वो अत्यन्त कठिन दौर था सुबह जागने से रात्रि सोने तक केवल काम काम और काम, हमें कुछ मिनट भी आराम नही मिलता था।’’ राजर्शि जनकानन्द एक गरीब परिवार में जन्में थे, वे अपनी कठिन मेहनत और योग्यता से एक समृद्ध व्यक्ति बनें। परन्तु वे अन्ये अमीरों जैसे नही थे। वे एक उच्चकोटि के योगी थे जिन्होंने योगानन्द जी के कार्य को आर्थिक आधार प्रदान कर अपने जन्म के पवित्र लक्ष्य को पुरा किया। राजर्शि जी की अपने गुरू से प्रथम मुलाकात कानास षहर में जनवरी, 1932 में हुई थी। यह उनके मिलन का यथोचित समय था क्योंकि इस समय सम्पूर्ण अमेरिका आर्थिक मंदी से त्रस्त था और योगानंद जी माउण्ट वाषिगटन के भारी कर्ज से दबे पड़े थे, उन्होनें राजर्शि से कहा ‘‘इस कार्य की रक्षा करो।’’ प्रथम मिलन के समय तक राजर्शि जी इतने अस्थिर थे कि वे एक मिनट भी षांति से नही बैठ पाते थे वे हर क्षण उद्विग्न ही रहते थे। इस प्रथम भेंट में ही राजर्शि ने गुरूदेव के चारो तरफ एक नीला प्रकाष देखा जिसने सम्पूर्ण मंच को आच्छादित कर रखा था, और राजर्शि पुरी तरह से स्थिर और अन्र्तमुखी होकर बैठ पाये और पूर्ण आन्तरिक षान्ति को अनुभव कर पाये। उनके सारे पूर्व कर्म संस्कार इस प्रथम भेंट में ही भस्म हो गये और इसके बाद वे पूरी तरह ईष्वर में निमग्न हो गये। अगले पांच ही वर्शो में वे समाधि लाभ प्राप्त कर पाये। राजर्शि एक सफल व कुषल उद्योगपति थे परन्तु वास्तविकता में वे अत्यन्त दयालु व्यक्ति भी थे। बाल्यकाल में जब अपने भाई बहनों व अन्य बच्चों के साथ खेतों में कार्य करते और अचानक चोट लगने से यदि उनका कोई साथी व्याकुल होकर रो पड़ता तो वो भी उसके साथ दुख अनुभव कर रोने लग जाते थे। 6 वर्श की आयु तक उनके बाल नही कटवाये गये जो कि स्थानीय संस्कृति से विपरीत था इस कारण उनके बाल काफी बढ़ गये थे जिन्हें वे योगीयों के समान जटाजुट करके बांध लेते थे। वे प्राकृतिक रूप से ही एक अच्छे नेतत्व कर्ता थे। सतं लिन अपने कई पूर्व जन्मों में योगानन्द जी के षिश्य रह चुके थे, परमहंस जी ने एक बार उन्हें लिखा ‘‘तुम एक हिमालय के हिन्दु योगी थे जिन्हें अमेरिका में राजसी योगी बनाकर भेजा गया जो पष्चिमी भाईयों के उत्कट हृदयों में योगदा की अलख जगाने के लिए आया है। एक अन्य पत्र में गुरूदेव लिखते हैं ‘‘तुम मेरे विवेकानन्द हो’’ और ‘‘मैं तुम्हारे अनेक पूर्व जन्मों को मैं देख पा रहा हूँ जिनमें हमने साथ ध्यान किया था।’’ दिव्य प्रेम और आध्यात्मिकता के सुनहरे बंधन में हमारी आत्माऐं सदा से ही बंधी आ रही है। राजर्शि जी ने अपने प्रिय गुरूदेव के बारे में कहा: ‘‘गुरू ईष्वर का दिव्य दूत होता है, और प्यारे स्वामी जी प्रेम, निस्वार्थता के अवतार हैं जो हमें दिव्य आनन्द प्रदान करने आये हैं।’’ गुरू और षिश्य के मध्य का प्रेम पवित्रतम प्रेम होता है जिस के दिव्य आभा को इन दोनांे आत्माओ ने अपने जीवन में प्रतिपादित किया है। परमहंस जी के पत्रों से हमें इन दोनों आत्माओं के दिव्य आनन्दपूर्ण एकत्व का आभास होता हैं एक पत्र में गुरूदेव लिखते हैं ‘‘हमारे षरीरों दो है किन्तु इसमें एक ही प्रकाष प्रकाषित हो रहा हैं।’’ राजर्शि पूर्णतः निमग्न हो गहराई से ध्यान करते और वे अपना ज्यादा समय ध्यान में ही बिताते थे। एक बार गुरूदेव किसी अन्य षिश्य के साथ एंसनीटस के मैदान में घुम रहे थे उन्होंने राजर्शि को नजदीक ही घास पर बैठकर ध्यान में निमग्न देखा तो तुरन्त उन्होंने साथ में चल रहे भक्त को चुप रहने का ईषारा करते हुये मार्ग बदल लिया और दुर जाकर उन्होनंे साथ चल रहे भक्त से कहा ‘‘तुुम नही जानते जब एक षिश्य राजर्शि के समान गहन ध्यान करता है तो इस कार्य को कितने आषीर्वाद प्राप्त होते हैं।’’ राजर्शि कानास षहर में रहते थे जब भी सम्भव होता वे अपने गुरू के पास आ जाते थे। गुरूदेव भी अपने दुलारे षिश्य का इंतजार करते थे उनके आने की सुचना प्राप्त होती वे इसकी पूरी तैयारी करते थे। आश्रम को पुरी तरह से साफ करके सजाया जाता था। प्रतिवर्श क्रिसमस पर राजर्शि अवष्य आते और एक बड़ी राषि अपने गुरू को समर्पित कर के जाते। उन्होंने अपने गुरू व संस्था की विŸाीय जिम्मेदारी का निर्वाहन निश्ठता से किया ना केवल अमेरिका वरन गुरूदेव की भारत यात्रा व रांची व दक्षिणेष्वर आश्रम की स्थापना का भी अधिकतम भार उन्होंने ही स्वेच्छा से वहन किया। जब गुरूदेव भारत यात्रा पर आये तो उन्होंने पूर्ण गोपनीयता से अपने गुरू के लिए एंसनीटस का आश्रम भी बनवाया जहां गुरूदेव ने 1937 के बाद अपना अधिकतर समय बिताया और अपनी षेश पड़े लेखन कार्य को समाप्त किया । यही उन्होंने अपनी आत्मकथा का लेखन कार्य सम्पन्न्ा किया। अपने व्यापारिक उŸार दायित्व से भी मुक्त होने के बाद 1946 में अपने स्वाथ्य की गंभीर समस्या से उबरने के लिये वे कई महीनों तक अपने गुरू के साथ रहें एसनीटस आश्रम में रहे। कानास षहर में ध्यान समुह चलाने के अलावा इस षिश्य ने 1951 तक एस आर एफ की किसी भी महत्वपूर्ण पद को स्वीकार नही किया जबकि सम्पूर्ण सोसाईटी का विŸाीय भार का 80 प्रतिषत वे स्वयं वहन कर रहे थे। अगस्त 1951 में परमहंस जी ने उन्हें सन्यास प्रदान कर संत लिन को राजशर््िा जनकानन्द का नाम प्रदान किया और उन्हंे अपना आध्यात्मिक उŸाराधिकारी घोशित कर अपने रहते हुऐ ही एसआरएफ का प्रेसीडेंट पद ( द्वितीय, प्रथम गुरूदेव स्वयं थे।) सम्भालने को तैयार किया। इस जिम्मेदारी को भी इस विन्रम संत ने केवल गुरू ईच्छा पूर्ति के लिये उनके मार्गदर्षन से ही किया उन्होंने गुरूदेव के द्वारा बनाये किसी भी नियम मे कोई भी फेरबदल नही किया। अपने गुरू के मार्गदर्षन पर ही उन्होंने अपनी जटिन स्वाथ्य समस्या के निवारण हेतू बोरेगो स्प्रिंग के रेगिस्तान में घर भी बनाया। अपने गुरू के 1952 में समाधि पर भारत से स्वामी आत्मानन्द, गुरूदेव के चचेरे भाई प्रभास घोश जो बाद योगदा के मुख्य सचिव के पद भी रहे अन्य दो षिश्यों के साथ गुरूदेव के अंतिम दर्षन के लिये अमेरिका आना चाहते थे और उन्होंने इस हेतु राजर्शि से सम्र्पक किया और राजर्शि ने उनके आने का प्रबन्ध किया वे तीन सप्ताह में अमेरिका पहुंचे और उनके लिये ही गुरूदेव के पार्थिव षरीर को समाधिस्थ नही कर फारेस्ट लान मेमोरियल षवगह मे रखा गया और इसी कारण गुरूदेव के पार्थिव षरीर के 21 दिनों तक सुरक्षित रहने का चमत्कार इस विष्व के समक्ष उजागर हो पाया। अमेरिका आने के बाद स्वामी आत्मानन्द जी ने राजर्शि से सन्यांस दीक्षा प्राप्त की जिन्हें गुरूदेव ने पहले ही एक पत्र द्वारा संन्यास प्रदान कर आत्मानन्द नाम दे दिया था। अपने गुरू के समाधि के बाद राजर्शि मस्तिश्क केंसर से ग्रसित हो गये थे अगस्त 1952 में उनका प्रथम षल्यचिकित्सा हुई । इस दौरान राजर्शि को अपने गुरू के कई बार दिव्य दर्षन प्राप्त हुए, राजर्शि ने बताया कि एक बार तो वे इस षरीर से मुक्त हो गये थे परन्तु गुरूदेव ने उन्हें पुनः जीवनदान देकर षरीर प्रदान किया। जनवरी 1954 में राजर्शि का द्वितीय व अक्टुबर 1954 में तीसरी बार षल्य चिकित्सा की गई। राजर्शि जी का षरीर का स्वाथ्य निरन्तर गिरता रहा परन्तु उनका आनन्द अपने गुरू के दिव्य दर्षनों से सदैव बढ़ता ही रहा। अन्तंतः 20 फरवरी 1955 का वह दिन आ ही गया जब इस लाडले ने अपनी अनन्ता की यात्रा में प्रवेष किया। इस घटना को बताते हुऐ दया माता कहती हैं: उनके अंतिम समय मैं, मृलाणिनी, दुर्गा व सलीसुया माता उनके साथ थे। दुर्गा माता ने उनका हाथ अपने हाथों में ले रखा था। राजर्शि आनन्द में निमग्न थे उनका ष्वास षांत व स्थिर था वे आंतरिक प्रकाष में तो निमग्न थे ही बाह्य रूप से भी एक ष्वेत प्रकाष की आभा ने उन्हें घेर रखा था जो सतत प्रकाषमान होता जा रहा था। अंततः वे सदा सदा के लिए अपने गुरू के साथ एक हो गये जैसा उनके लिए अक्सर गुरूदेव कहा करते थे: ‘‘अनन्ता का साम्राज्य तुम्हारा है।’’ उन्होंने भी अपने गुरू के समान ही मृत्योपरान्त अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया। राजर्शि ने अपने जीवन काल में ही अपने जीवन बीमा में अपने उŸाराधिकारी के रूप में एस आर एफ को मनोनीत किया था। इसके कारण ही एस आर एफ को उनके देहावसान पर 6 करोड़ डालर (वर्तमान के 600 करोड़ डालर) की एक बहुत बड़ी बीमा राषि प्राप्त हुई। जिसने सोसायटी को एक सुदढ़ आधार प्रदान किया। वास्तव में इस षिश्य ने अपना जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्य अत्यन्त निपुणता से पुरा किया वे जीवन काल में ही नही वरन अपने परलोक गमन के साथ भी अपने गुरू के कार्य को एक सुदढ़ आर्थिक आधार प्रदान करके गये।