डा0 लुईस

डा0 लुईस अपने जीवन में गुरूदेव की पहली झलक को व्यक्त करते हुए कहते है वह 1920 अक्टुबर की एक भरी दोपहर थी जब में प्रतिदिन की तरह डेविस स्कवायर, समरविले, मेसाच्युट्स के अपने आफिस से घर जाने के लिए निकला, स्कवायर को पार करते हुए मैंने भगवा कपड़े पहने तेजी से चलते एक व्यक्ति को देखा जिनके सर पर एक बड़ी पगड़ी थी। समरविले में ऐसे व्यक्ति को शायद ही पहले कभी देखा गया हो। मेरे मुड़ते ही वे मेरे सामने से गुजरे, और मुझे इसका किंचित भी आभास नही हुआ कि यह अजनबी मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए आया है वह व्यक्ति और कोइ नही स्वयं गुरूदेव ही थे, जिन्हें उस समय स्वामी योगानन्द वह अब उन्हें परमहंस योगानन्द के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस घटना के बाद इस वर्ष के क्रिसमस तक स्वामी जी से मेरी मुलाकात नही हुई, जबकि मेरी धर्मपत्नी उनसे इसी शहर में हुऐ एक व्याख्यान में मिल चुकी थी और मुझे भी उनसे मिलने के लिए बार बार प्रेरित कर रही थी।

 

क्रिसमस के कुछ दिनों पहले ही मेरे एक व्यापारिक सहयोगी श्रीमति हैस्जी, जो कि मेरे साथ एक दो संस्थानों में कार्य कर चुकी थी और जिन्हें गुरू जी ने बाद में योगमाता का नाम दिया था ने मुझे टेलीफोन किया और स्वामी योगानन्द से मिलने के लिए पुरजोर दबाब दिया जोकि उस समय बास्टन में ही थे। पुराने सम्बन्धों के खातिर मुझे उनसे मिलने के लिए विवश होना पड़ा । मैंने उन्हें फोन करके क्रिसमस की पूर्व संध्या का समय तय कर लिया पर तब तक भी मैं गुरूदेव से मिलने के लिए उत्साहित नही था, क्योंकि मेरे मन में भारतीय लोगों के प्रति, उनके रीति रिवाज और धुर्तता की अलग ही धारणा बनी हुई थी।

 

अन्ततः वह शुभ दिन आ ही गया। मैं गुरूदेव से मिलने युनिटी हाउस नियत समय पर पहुँचा कमरे में प्रवेश करते ही मैंने पाया कि उनके मुख पर दिव्य आनन्द से आनन्दित करने वाली हंसी सुशोभित हो रही थी। मैंने भी उनकी मुस्कारहट का उत्तर अपनी हल्की सी किन्तु सचेत मुस्कान के साथ इस विचार से दिया कि मैं यहाँ किसी भी प्रकार की मुर्खतापूर्ण बात को स्थान नही दूँगा। हम दोनों बैठ गये और आध्यात्म के विषय पर सामान्य परिर्चचा आरम्भ हो गयी। परिर्चचा के मध्य में वर्षो से चल रही मेरी जिज्ञासा जिसे कि अनेक विद्वानों से पूछने व धर्मशास्त्रों में पढ़ने के बाद भी मुझे कोई भी ना तो सन्तुष्ट कर सका कि जीसस के इस वचन का ‘‘

अर्थ क्या है ना ही कोई मुझे इस प्रकाश को दिखाने में समर्थ हो सका? गुरूदेव ने कहा ‘‘क्या एक अंधा दुसरे अंधे को रास्ता दिखा सकता है? वह दोनों ही गड्डे में गिर जायेंगे।’’ यह बाईबल वचन का था जिसने मुझे अत्यंत प्रभावित किया जो मेरे प्रश्न का एक उचित से दिखने वाला उत्तर था। लेकिन अमेरिकन होने के नाते मैनें अगला प्रश्न किया: ‘‘क्या आपने इस प्रकाश कोई अनुभव किया है? क्या आपने उस दिव्य नेत्र को देखा है? गुरूदेव ने कहा ‘‘हाँ, मैनें देखा है’’ मैनें कहा ‘‘क्या मुझे भी उस दिव्य प्रकाश के दर्शन हो सकते है।’’ गुरूदेव उत्तर दिया ‘‘अवश्य’’ तब मैंने हल्की सी मुस्कान के साथ पुछा ‘‘ मुझे भी उस दिव्यप्रकाश के दर्शन करवाइये’’ गुरूदेव ने उत्तर दिया ‘‘अवश्य, पहले शांत होकर बैठते हैं।’’ कुछ देर बाद गुरूदेव ने व्याघ्रचर्म फर्श पर बिछाया और उसके एक किनारे पर बैठ गये और मुझसे कहा कि थोड़ी देर मेरे साथ शांत होकर इस आसन पर बैठोगे, गुरूदेव पदमासन की मुद्रा में थे मैंने भी कोशिश की और उनके सामने बैठ गया पर मुझे याद हैं कि मैं पदमासन मुद्रा में नही बैठ पाया था। थोड़ी देर बाद गुरू जी सीधे मेरी आंखो में देखते हुए कहा ‘‘डाक्टर, क्या तुम मुझे सदैव वैसा ही प्रेम करोगे, जैसा मैं तुम्हें करता हूँ’’ मैं भावविभोर हो गया क्योंकि मुझ से इस तरह किसी ने बात नही की थी जैसे ही मैनें उनकी ओर देखा वे साक्षात् आनन्द के अवतार लग रहे थे इस भाव को मैनें आज से पहले कभी अनुभव नही किया था अतः मैनें भी शीघ्रता से उत्तर दिया ‘‘हाँ! मैं करूंगा’’ मुझे अच्छी तरह से याद है मेरी बात सुनकर गुरू जी मोहक मुस्कान के साथ बोले ‘‘ठीक है आज से मैं तुम्हारे जीवन की जिम्मेंदारी लेता हूँ ’’ मैं इस समय तक उनके इस वचन का महत्व नही समझ पाया था। इसके बाद हम ध्यान करने बैठे कुछ समय के ध्यान के बाद गुरू जी ने मेरे मन के सभी विचारों को शान्त किया और अपने ललाट को मेरे ललाट के सन्मुख लाकर कहा कि अपने आखों को कुटस्थ पर केन्द्रित करों और ध्यान से दखों, मैनें ऐसा ही किया। मेरे कुटस्थ पर दिव्य नेत्र का महान ज्योर्तिमय प्रकाश प्रस्फुटित हुआ। गुरूदेव ने मुझे किसी भी प्रकाश के बारे में नही बताया नाही कोई कल्पना ही करने के लिए कहा मैं स्वतः ही उनकी कृपा से दिव्य प्रकाश देख रहा था। गुरूदेव की कृपा से मेरे अन्तःकरण के द्वार खुल गये। उनके हाथों के स्पर्श द्वारा मैंने अपने कुटस्थ पर उस दिव्य चेतना का प्रतीक पंचकोणीय तारे व सहस्त्रदल कमल के उत्कृष्ट दर्शन प्राप्त किये।

मुझे याद है गुरूदेव ने मुझसे कहा था ‘‘यदि तुम मेरा अनुशासन को स्वीकार करों और मेरे बताये मार्ग का अनुसरण करोगे तो यह अनुभव सदैव तुम्हारे साथ रहेगा’’। इसके बाद उन्होनें मुझसे एक वचन लिया कि ‘‘तुम सदा ही मेरे साथ रहोगे’’। मैं तो उनका कृतज्ञ था कि उन्होंने मेरी अनन्त खोज को समाप्त कर मुझे दिव्य प्रकाश के दर्शन करवाये। मैनें उनपर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का वचन दिया और गुरूदेव को किये वादे को मैनें हमेशा निभाया। अपनी अन्तिम दिन तक मैं इसको निभाता रहूँगा।

ये मेरे महान् गुरूदेव ही है जिन्होंने इस भव सागर से मुझे पार लगाया है और सदा ही मेरी रक्षा की है। उस दिन पहली बार मैंने वास्तविक क्रिसमस को जाना था। जिसमें मुझे संसार के किसी भी प्रकाश की आवश्यकता नही रही गई थी वरन् मेरे भीतर ही पूर्ण प्रकाश प्रतिबिम्बीत हो रहा था।

 

दुसरी घटना: मेरी जीवन से सम्बन्धित एक अविस्मरणीय घटना जिसमें गुरूदेव ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय शक्ति को नियंत्रित कर मुझे अनुग्रहित किया। अगर मैं कहूँ कि यह घटना बताने के लिए यदि आज मैं जीवित भी हूँ तो वह भी र्सिफ गुरूदेव के कारण ही सम्भव हो सका है। जुलाई 1921 में, जब मैं अपने पिता व भाई के साथ समुद्र में एक छोटी सी नाव पर भ्रमण के लिए निकला। किनारे से दो मील की दूरी तय करने के बाद मुझे तेज तुफान के आने का अंदेशा हुआ क्योंकि अचानक अंधेरा छा गया था। लहरें की जबरदस्त उछालों से मेरी छोटी नाव स्वयं को बेबस सी महसुस कर रही थी। मैंने खतरे को भांपते हुए तुरन्त अपनी नाव वापस किनारे को जाने के लिए मोड़ ली किन्तु अभी लगभग मैं आधा मील ही पार कर पाया था कि वे हम चारों तरफ से समुद्र में उफनते तुफान के बीच फंस गये थे। हम सभी को अपना अन्त निकट महसुस होने लगा। तभी मुझे अन्तर चेतना में गुरूदेव के वचन सुनाई दिये ‘‘ याद रखो जब तुम ओम के वैश्विक स्पंदन में रहोगे, जब तुम अपनी चेतना को कुटस्थ पर केन्द्रित करोगे और ओम स्पंदन के साथ समस्वर हो जाओगे तो तुम्हारा कुछ भी नुकसान नही हो सकता।’’ और इस Antergyan के बाद मैं कुटस्थ पर केन्द्रित होकर स्वयं को ओम के वैश्विक स्पंदन से समस्वर करने लगा। ऐसा करते ही उस दिव्य प्रकाश अनुभूति हुई और मुझे विश्वास हो गया कि हम सब अब सुरक्षित हैं। कुछ ही पलों में हमारी मदद के लिए एक बचाव दल वहां पहूंच गया और हम वहाँ से सुरक्षित किनारे पर आ गये। इस घटना कुछ वर्षा बाद एक दिन योगमाता से परिचर्चा के दौरान मुझे पता चला कि उसी दिन और उसी घड़ी वे गुरूदेव के साथ ही थी और उस समय गुरूदेव एक पूस्तक पढ़ रहे थे कि अचानक वे उठे और पुस्तक को रख वे तुरन्त ध्यान में समाधिस्थ होते हुए बोले ‘‘सिस्टर डा0 मुसीबत में है, गंभीर मुसीबत में है’’ योगमाता मुख से इस प्रसंग को सुनकर मुझे अहसास हुआ कि गुरूदेव सर्वज्ञानी थे और अपने ब्रह्माण्डीय शक्तियों के सुक्ष्म नियत्रंण द्वारा हमारी रक्षा की। इस प्रकार एक सद्गुरू कहीं भी रहें वे सदैव अपने शरणागत पर नजरे रखतें है और अनगिनत तरीकों से उनकी सहायता करते रहते है।

 

एक अन्य अवसर पर मैं गुरूदेव से मिलने कि लिए घर से निकला और भूलवश कहीं ओर मुड़ गया और अचानक मुझे लाहिड़ी महाशय और स्वामी श्री युक्तेश्वर जी स्पष्ट आवाजें सुनाई दी वे कह रहे थे ‘‘वापस जाओ उसे अभी सहयोग की आवयश्कता है।’’ मैं तुरन्त गुरूदेव के पास पहँचा और यथा सम्भव सहयोग दिया गुरूदेव की आँखे भर आई वे बोले ईश्वर ने मेरी प्रार्थनों का जबाब तुम्हारें रूप में भेजा है।

 

अन्तिम प्रस्थान

अन्तिम प्रस्थान 7 अप्रैल 1960 डा0 लुइस के अन्तिम प्रस्थान का दिन उनकी धर्मपत्नि श्रीमति लुईस के शब्दों में मेरे पति डा0 लुईस स्वास्थ्य सम्बन्धी चिकित्सीय जांच हेतु अस्पताल में भर्ती हुए। उसी दिन संध्या के समय करीब 7 बजे उन्होंने एक झपकी लेने की इच्छा जाहिर की और लगभग आधे घंटे वे शान्ति से निद्रा पूर्ण की। इसके बाद उठकर उन्होनें मुझे कहा कि मैं कुछ देर ध्यान करना चाहता हूँ जैसा कि वे प्रतिदिन किया करते थे। मैनें उनके आराम से बैठने के लिए कुछ तकियों को सलीके लगाकर उनके ध्यान करने में सहायता की। वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे उनकी आँखें कुटस्थ पर स्थिर हो गयी थी, यह सोचकर कि मैं भी कुछ देर ध्यान कर लूँ मैं भी वहीं उनके समीप ही बैठ गयी। कुछ मिनटों बाद एक तेज गड़गड़ाहट की ध्वनि से मेरी आँखे खुल गयी। यह एक दुर से किसी स्वाचालित मोटर के समान या यूँ कहें तो ज्यादा बेहतर होगा कि महा क्रिया की ध्वनि के समान प्रतीत हुई। इस ध्वनि के साथ ही एक अवर्णनीय श्वेत दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ जिसकी आभा की तुलना हजारों बल्बों के प्रकाश से भी नही की जा सकती थी। डा0 लुईस के नेत्रों को भेद कर आता हुआ वह नीला प्रकाश उनके कुटस्थ में समा गया। उनका मस्तक थोड़ा नीचे की ओर झुक गया पर उनका शरीर तना हुआ ही रहा। एक क्षण के लिये स्वामी श्री युक्तेश्वर जी के चेहरा की झलक उनके मुख पर दिखाई पड़ी मैं अवाक रह गयी और सब शान्त हो गया। डा लुइस ने लास एंजेलिस में सेल्फ रिलायजे़शन, के द्वितीय संगम के दौरान अपने प्रिय गुरूदेव की महिमा को इन शब्दो में व्यक्त किया ‘‘ मेरे समस्त आध्यात्मिक ज्ञान का श्रेय गुरूदेव को है। उनकी करूणा व विन्रमता से मैं अभिभूत हो गया हूँ। मेरे भीतर जो भी अनुभूति सुप्तावस्था में थी वह मेरे दिव्य गुरूदेव के स्पर्श मात्र से ही जागृत हो गयी। साधारण मानवीय संबंध व मित्रतायें, गुरू व शिष्य के दिव्य संबंध के आगे फीके है। गुरूदेव ने बिना विचलित हुए अनेक अवसरों पर मेरी बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान किया, एक दिन मैनें उनसे आत्मविभोर हो पुछ ही लिया ‘‘आप के इस दिव्य ज्ञान, साहस व र्निभयता का क्या कारण है? ’’ गुरूदेव ने कहा ‘‘डा0 याद रखो, परमपिता जो सदैव मेरी रक्षा करते है वही तुम्हारी भी रक्षा करते है। वही हम सब के एक मात्र पिता है।’’ ये बात मुझे सदा ही प्रेरित करती रही है।

 

डा0 लुईस व श्रीमति लुईस ने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरू सेवा में व्यतीत किया। बास्टन के प्रथम ध्यान समूह से लेकर सेल्फ रिलाईजे़शन के र्बोड आफ डायरेक्ट में शामिल होने तक वे दोनों ही अपने अंतिम श्वास तक गुरूदेव के सेवाकार्य में रत रहे।

 

‘‘लुईस दम्पति का जीवन हम सभी के लिए अनुकरणीय व प्रेरणा का स्त्रोत है।’’