स्वामी भक्तानन्द जी का जन्म 2 नवम्बर, 1914 मंे पेन्सलवेनिया के पास पीटसबर्ग नामक षहर में हुआ था। इनका परिवारिक नाम माईकल क्रुल था। 1939 में स्वामी जी ने एस आर एफ के माउण्ट वाषिंगटन आश्रम में प्रवेष किया व गुरूदेव द्वारा 1940 में संत की उपाधि प्राप्त की 1955 में दयामाता जी ने सन्यास दीक्षा व भक्तानन्द नाम प्रदान किया । जिसका अर्थ है भक्ति का आनन्द।
स्वामी जी ने फीनिक्स और सेन डियेगो ध्यान मन्दिरों से अपने अपना सेवा कार्य प्रारम्भ किया व 33 वर्शों तक हालीवुड के ध्यान मन्दिर के प्रभारी के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। भक्तों के जीवन में ईष्वर और गुरू की उपस्थिती में जाग्रत देखकर स्वामी जी को सबसे ज्यादा प्रसन्न्ाता होती थी। जो गुरू के प्रति एकनिश्ठ भाव से ही उत्पन्न्ा होती है।
गुरूदेव की षिक्षाओं व क्रियायोग के समुचित प्रसार के लिए स्वामी जी ने सम्पूर्ण अमेरिका के साथ साथ युरोप व भारत देष का भी भ्रमण किया। स्वामी जी अपने सरल स्वभाव और गुरू के प्रति अर्षत भक्ति के कारण विष्व के समस्तएस आर एफ सदस्यों के मध्य अनुकरणीय थे।
अपने सार्वजनिक व्याख्यानों, निजी व्यवहार व आध्यात्मिक परामर्ष द्वारा सभी के हृदयों को प्रभावित कर, गुरूदेव की षिक्षाओं का प्रत्यक्ष उदाहरण बनकर उन्होंने अनगिनत आत्माओं को गुरू चरणों में स्थिर किया ।
स्वामी आनन्दमोयी जी के षब्दों में
भक्तानन्द जी द्वारा दिये गये प्रथम व्याख्यान के प्रत्येक षब्द आज भी मेरे कानों में प्रतिध्वनित हो रहा है उनकी परिचर्चा का मुख्य विशय था – गुरू के प्रति अर्षत भक्ति और अपने कार्यो के दौरान ईष्वर के सान्ध्यिता का अभ्यास।
स्वामी आनन्दमोयी जी कहते है मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि यह उनके सबसे प्रिय विशय जिस पर उन्होंने अनेक वर्शो व्याख्यान दिया।
एक भक्त ने इस संर्दभ में मुझसे कहा कि ‘‘एक ही विशय सदैव व्याखान देना कितना नीरस सा प्रतीत होता है। ’’ मैनें प्रत्युŸार में कहा ‘‘यह उनके लिए नीरस है जो इसका अभ्यास नही करते, परन्तु जो इसका अभ्यास करते है वे इसे बार बार सुनना चाहते है वे नही उबते क्योंकि यही आध्यात्मिक जीवन का सारांष है।’’
स्वामी जी अक्सर अपने व्याख्यानों में गुरूदेव के बाल्यकाल के दौरान काली मन्दिर में घटित घटना का उल्लेख अवष्य करते जिसमे एक संत ने कहा था ‘‘एक मात्र ईष्वर ही सरल है, अन्य सभी जटिल है।’’ स्वयं भक्तानन्द का जीवन आध्यात्मिक सरलता का उत्कृश्ट उदाहरण था। वे अक्सर कहते थे ‘‘आप का जीवन जितना सरल होगा उतना ही आप ईष्वर को अपने निकट महसुस करेंगे।’’
एक बार गुरूदेव कुछ षिश्य व भक्तों के मध्य गुरूदेव ने भक्तानन्द जी के भक्ति की प्रषंसा की। वहां पर उपस्थिीत एक व्यक्ति जो बौद्धिकस्तर पर स्थिर थे उन्होंने गुरूदेव से कहा ‘‘गुरूदेव ! भक्तानन्द की भक्ति तो अत्यन्त साधारण स्तर की है ?’’
गुरूदेव ने उŸार दिया ‘‘आह! यही सरलता तो ईष्वर पसंद करते है।’’
स्वामी अचलानन्द जी अपने इस साथी संत के बारे में बताते है भक्तानन्द जी के 80वें जन्मदिन पर दया माता ने स्वामी जी को पत्र में लिखा: ‘‘मुझे याद है एक बार गुरूदेव ने तारा माँ को माईकल (स्वामी भक्तानन्द) के बारे कहा: माईकल एक निश्ठावान और प्रेमिल षिश्य है, आने वाले वर्शो में मेरा भक्ति पूर्ण अनुषरण कर उŸारोŸार प्रगति करता जायेगा।’’
अचलानन्द जी आगे कहते हेै: ऐसा ही हुआ, स्वामी भक्तानन्द के सम्र्पक में जो भी आया वो उनके ईष्वर गुरू के साथ उनके सरल भक्तिपूर्ण सम्बन्ध से लाभान्वित होकर अपने आध्यात्मिक जीवन में उन्न्ात हुआ।
स्वामी भक्तानन्द जी अक्सर कहते ‘‘ जब हम भक्ति से निंरतर ईष्वर के पावन नाम को दोहराते दोहराते उनकी उपस्थिती का अभ्यास करने में अभ्यस्त हो जाते है तो हमारा हृदय आनन्द, प्रेम और षांति से परिपूर्ण हो जाता है, कभी हम इनमें से किसी एक गुण की परिपूर्णता से पूरित होते है और कभी तीनों के सम्मिश्रण से। ईष्वर के साथ यह सम्बन्ध अद्वितीय है, आप इसे अनुभव किये बिना नही समझ सकते। ये तो केवल ईष्वरीय के साथ दिव्य प्रेम सम्बन्ध की षुरूवात है, यह दिव्य प्रेम नित्य विस्तारित और गहन होता जाता है, जितना ज्यादा हम इस का निरन्तर अभ्यास करते है उतना ही हम इसमें डुबते जाते है: ‘‘मैं आपसे प्रेम करता हूँ, आई लव यु गुरूदेव, मैं आपसे प्रेम करता हूँ मन की पृश्ठभूमि में सदैव दोहराते ही रहिये आई लव यु गुरूदेव।’’
(भाग 2)
स्वामी ईषतानन्द जी जिन्होंने उनके साथ दीर्घ काल तक हालीवूड आश्रम में कार्य किया, स्वामी भक्तानन्द जी के विशय में कहते है
षुरूवाती दिनों में गुरूदेव से किसी ने षिकायत करते हुए कहा ‘‘आपके साथ एक भी युवा नही है जो ईष्वरीय प्रेम में निमग्न हो’’ गुरूदेव ने उŸार दिया ‘‘तुम अभी माईकल (स्वामी भक्तानन्द) को नही जानते हो, वह विख्यात व्यक्तित्व नही है किन्तु अपने सरल व गहन भक्ति की परिपूर्णता द्वारा वह असंख्य आत्माओं को इस मार्ग पर आकर्शित करेगा।’’
स्वामी भक्तानन्द जी एक उच्च कोटि के प्रेमिल आध्यात्मिक व्यक्ति थे। जब भी कोई उनसे परामर्ष लेने आता तो वे बिना देरी के उनकी सहायता को सदैव तैयार रहते। इस संसार में अधिकतर मनुश्य अपनी निजी परेषानीयों से ही बाहर नही आ पाते है, सोचिये दुसरों की समस्याओं के समाधान कि लिए वर्श दर वर्श प्रेम व अषर्त समपर्ण से जीना कितना अद्भूत और महान है।
भक्तानन्द जी का जीवन गुरूदेव के प्रति अविरल प्रेम धारा समान था, वे गुरूदेव के आदर्षो का जीवन्त स्वरूप थे।
मैंने स्वामी जी के साथ वर्शो तक कार्य किया है और उन्हें विभिन्न भक्तों को परामर्ष देते भी देखा है । मैनें उन्हें कभी भी भावात्मक होकर अपनी षांति खोते नही देखा। चाहे भक्त कितना भी आक्रोषित, अषांत या कभी कभी दुख की उग्रता से उच्च स्वर मंे भी उनसे बात करते, परन्तु वे उन्हें अत्यन्त प्रेम व षांति से सुना करते । कभी उन्हें सान्तवनादायक षब्दों में कहते ‘‘ओह! ऐसा हुआ, ऐसा हुआ।’’ स्वामी जी को सदा ही समभाव में देखा, पूर्ण षांत, प्रेमिल। किसी को पूर्ण समभाव में सभी भावावेषों पर पूर्ण नियत्रंण की अवस्था में देखना अत्यन्त अद्भुत है। गुरूदेव अक्सर कहा करते ईष्वर साक्षात्कार के लिए समभाव आवष्यक है। और स्वामी जी इस के सटीक उदाहरण थे।
कुछ वर्शो पूर्व स्वामी जी ने हमें एक पत्र लिखा ‘‘प्रेम मनुश्य की सबसे बड़ी सम्पŸिा है, सब कुछ इस दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति से प्राप्त हो सकता है। ये लोगों को साथ बनाये रखता है, यह मनुश्य को देवता बना देता है, आत्मा मात्र विषुद्ध प्रेम को ही समझती है, क्योंकि आत्मा ईष्वर का ही अंष है और ईष्वर प्रेम हंै। जब हम अपने जीवन को सभी के लिये विषुद्ध प्रेम से सराबोर कर लेते है तब हम स्वयं प्रेम होकर, ईष्वर से एकाकार हो जाते है’’
स्वामी जी का एक विषेश गुण था वे सदैव भक्तों पर गुरूदेव के आर्षीवादों की वर्शा करते वे चलते फिरते बात करते या परामर्ष देते हुए भी अक्सर कहते रहते ‘‘गुरूकृपा तुम पर बरसती रहे, गुरूदेव तुम्हें आषीर्वाद दे रहे है।।’’
श्री श्री दया माता ने स्वामी जी को श्रद्धांजलि देते हुये समारोह में कहा
दिव्य आत्मन्,
मैं भी आप के साथ इस महान आत्मा को प्रेम व सद्भाव ज्ञापित करती हूँ, ये अपने गुरू के महानतम् षिश्य थे जिनके प्रेम व सरलापूर्ण जीवन से असंख्य षिश्यों को लाभ प्राप्त हुआ है। अब स्वामी जी षरीर के बंधन से मुक्त होकर गुरूदेव से एक हो दिव्य प्रेम की षोभा बन गये है।
मुझे याद है 193़9 में आश्रम आने के बाद से इस दिव्य आत्मा ने अपने जीवन में प्रथम स्थान गुरूदेव के आदर्षो को प्रदान किया है और जीवन पर्यन्त स्वामी जीे इस आदर्ष पर दृढ़ रहे।
स्वामी भक्तानन्द जी ने 1939 में आश्रम में प्रवेष करने से लेकर अपने अगले 66 वर्शो के सेवा काल मंे अपना सर्वस्व गुरूदेव के लक्ष्य की पूर्ति में लगाया। उनका जीवन ईष्वर व गुरू के प्रति निर्षत भक्ति का एक अनुकरणीय उदाहरण है। प्रत्येक आत्मा जो उनके सम्र्पक में आयी उन्होंने स्वयं को भक्तानन्द जी के विषुद्ध प्रेम व भक्ति से स्वयं को परिवर्तित होते अनुभव किया। स्वामी भक्तानन्द सरल, सहृदय, गुरू प्रेम के विषुद्ध उदाहरण जिन्होनें अपने जीवन में ईष्वर के साथ दिव्य प्रेम को प्रदर्षित किया।
सोमवार, अप्रेल 04, 2005 में इस दिव्य आत्मा ने अपने परमआश्रय को प्राप्त कर अपनी इह लोक की लीला समाप्त की परन्तु उनका विषुद्ध प्रेम व भक्ति सदैव हमें प्रोत्साहित करती रहेगी।
स्वामी जी के ब्रह्मलीन होने के पष्चात हमें विष्वभर से हजारों पत्र प्राप्त हुुये है जिनमें उनके प्रेम व उत्साह के प्रमाण व्याप्त है।
एक भक्त लिखते है ‘‘वे धैर्य की मुर्ति थे, मैं उनके पास अनेको प्रष्न लेकर गया और सदैव उनके द्वारा मैंने सरल व प्रभावी उŸार को प्राप्त कर लाभान्वित हुआ। उन्होनें गहन आध्यात्मिक सत्यों को नित्य जीवन में उपयोग करने लायक सरल सुत्रों में परिवर्तित कर मेरा जीवन बदल दिया। मैं उनके सहृदय मार्गदर्षन को कभी भी नही भूला सकता।’’
स्वामी जी ने अपने जीवन के अन्तिम वर्शो में गुरू की सान्न्ािध्यता का अद्भूत उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके ही षब्दों में मुझे आई लव यु गुरूजी के जप में अत्यन्त आनन्द की अनुभूति होती है मैं ने सतत् 3 वर्शो तक सतत् इसका अभ्यास किया एक दिन ऐसे ही मन में भाव आया कि ‘‘मैं तो दिन रात आई लव यु गुरूदेव करता रहता हूँ गुरूदेव भी मुझसे ऐसा कहे तो कितना आनन्द आयेगा।’’ इस विचार को कुछ दिनों में भूल गया किन्तु मेरा जप निरन्तर चलता ही रहा। कुछ महीनों बाद मैं व्याख्यानों के यात्रा के लिए एयरपोर्ट पर था और प्रतीक्षा कक्ष में मन ही मन आई लव यु गुरूदेव दोहरा रहा था। मेरे पास ही एक सहयात्री महिला अपने नवजात षिषु के साथ थी । वह षिषु अभी अबोध ही था और वह बोल नही सकता था। अचानक मैंने उस षिषु के मुख पर वही चिरपरिचित मुस्कान देखी और वह बोला ‘‘आई लव यू टु’’। इस प्रकार गुरूदेव अपने षिश्य की हर एक छोटी सी छोटी सद्इच्छा को इस प्रकार पूर्ण करते है।